साक्षात्कार : साहित्यकार
कुमार धनंजय सुमन
(सोनवर्षा,थान बिहपुर,भागलपुर,बिहार – 853201 )
प्रश्न: आपके साहित्यिक जीवन की शुरुआत कैसे हुई?
उत्तर: मेरे साहित्यिक जीवन की शुरुआत एक आंतरिक बेचैनी से हुई — वह बेचैनी जो शब्दों में अर्थ खोजती है और मौन में भी संवाद रचती है। जब पहली बार कलम उठाई, तब लगा जैसे भीतर कोई अनकहा स्वर अपने आप आकार ले रहा है। वही स्वर धीरे-धीरे कविता, कहानी और आलेख में ढल गया।
प्रश्न: लेखन की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?
उत्तर: प्रेरणा मुझे जीवन से मिली — लोगों के दुख, संघर्ष, प्रेम, आस्था और विडंबनाओं से। खेतों की मिट्टी, नदी की गंध, मजदूर के पसीने और माँ के गीतों से निकली उस प्रेरणा ने ही मुझे कलम पकड़ना सिखाया।
प्रश्न: पहला लेखन अनुभव कैसा रहा?
उत्तर: पहला लेखन अनुभव जैसे आत्मा का उद्घाटन था। शब्दों में अपने आप को देखना और अपने ही लिखे वाक्यों में अपने मन की परछाईं पाना एक अनोखा अनुभव था। उसमें कच्चापन था, पर वह सच्चा था।
प्रश्न: किन साहित्यकारों या व्यक्तित्वों से आपने प्रेरणा ली?
उत्तर: मैंने निराला से भाषा की गहराई, प्रेमचंद से यथार्थ का साहस, और अज्ञेय से आत्मानुभूति का वैचारिक सौंदर्य सीखा। तुलसीदास की करुणा और कबीर की निर्भीकता भी मेरे लेखन में कहीं न कहीं बहती है।
प्रश्न: आपके लेखन का मूल विषय या केंद्र क्या है?
उत्तर: मेरा लेखन मनुष्य और उसकी संवेदना के इर्द-गिर्द घूमता है। समाज के भीतर छिपे असमानता, प्रेम, पीड़ा और सत्य की खोज ही मेरे लेखन की धुरी है।
प्रश्न: आप किन सामाजिक या मानवीय मुद्दों को अपने लेखन में प्रमुखता देते हैं?
उत्तर: मैं हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज़ को महत्व देता हूँ। श्रमिक, किसान, स्त्रियाँ, और वह व्यक्ति जिसे समाज ने ‘गैर-जरूरी’ समझ लिया — वही मेरे लेखन का केंद्र है।
प्रश्न: वर्तमान समय में साहित्य की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर: आज साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि प्रतिरोध और संवाद का माध्यम है। वह समाज के विवेक को जगाने वाली अग्नि है, जो अंधकार में भी चेतना की लौ जलाए रखती है।
प्रश्न: क्या साहित्य समाज को बदल सकता है, या केवल उसका प्रतिबिंब भर है?
उत्तर: साहित्य पहले समाज का दर्पण होता है, फिर वह दीपक बन जाता है। वह केवल दिखाता नहीं, बल्कि सोचने को विवश भी करता है। परिवर्तन उसकी अंतर्धारा में ही निहित है।
प्रश्न: आपकी रचनाओं में भाषा और शैली की विशिष्टता क्या है?
उत्तर: मेरी भाषा लोक और लय दोनों का संगम है। उसमें गाँव की मिट्टी की गंध भी है और विचार की पारदर्शिता भी। मैं भाषा को एक जीवित नदी की तरह मानता हूँ — जो बहते-बहते स्वयं अपना मार्ग खोज लेती है।
प्रश्न: क्या आप परंपरागत भाषा प्रयोग के पक्षधर हैं या आधुनिक प्रयोगधर्मी शैली के?
उत्तर: मैं परंपरा को जड़ नहीं, जड़ों की तरह देखता हूँ। आधुनिकता उसी वृक्ष की नई शाखा है। अतः मेरा लेखन दोनों का संगम है — जहाँ परंपरा की आत्मा और आधुनिकता का स्वर साथ चलते हैं।
प्रश्न: पाठक वर्ग को ध्यान में रखकर आप अपनी भाषा चुनते हैं या स्वाभाविक रूप से लिखते हैं?
उत्तर: मैं अपने भीतर के पाठक को ध्यान में रखकर लिखता हूँ। जो शब्द मेरे भीतर से सहजता से निकलते हैं, वही पाठक के हृदय तक पहुँचते हैं। सच्चाई में ही सबसे अधिक संवाद की शक्ति होती है।
प्रश्न: आज के समय में साहित्य किन चुनौतियों का सामना कर रहा है?
उत्तर: सबसे बड़ी चुनौती है — संवेदना का क्षरण। शब्द बहुत हैं, पर उनमें आत्मा कम होती जा रही है। बाजारवाद ने साहित्य को वस्तु बना दिया है, जबकि वह तो आत्मा की भाषा है।
प्रश्न: सोशल मीडिया और इंटरनेट युग में साहित्य की स्थिति को आप कैसे आंकते हैं?
उत्तर: यह युग अवसर भी है और परीक्षा भी। लेखन अब सबकी पहुँच में है, पर गहराई कम हो रही है। सोशल मीडिया ने शब्दों को गति दी है, पर अर्थ को ठहराव नहीं।
प्रश्न: क्या आज के युवा लेखकों में रचनात्मकता और संवेदना पहले जैसी है?
उत्तर: रचनात्मकता तो है, पर उसकी दिशा भटकती दिखती है। संवेदना भीतर है, बस उसे आडंबर से बाहर लाने की आवश्यकता है। समय के शोर में भी कई सच्चे स्वर गूंज रहे हैं — बस उन्हें सुनना सीखना होगा।
प्रश्न: पुरस्कारों और सम्मान की राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है?
उत्तर: सच्चा पुरस्कार वह है जो पाठक के हृदय में बसता है। शिल्प और सत्ता के गठजोड़ से निकला सम्मान क्षणिक होता है, जबकि सच्चा लेखन अमर रहता है।
प्रश्न: क्या आज का लेखक अपने पाठक से जुड़ पा रहा है?
उत्तर: जुड़ाव अब प्रत्यक्ष नहीं, भावात्मक होना चाहिए। पाठक की संवेदना तक पहुँचने के लिए लेखक को पहले अपने भीतर उतरना होगा। जो भीतर से सच्चा होगा, वही बाहर से स्वीकार्य होगा।
प्रश्न: प्रकाशन जगत में नए लेखकों को क्या कठिनाइयाँ हैं?
उत्तर: सबसे बड़ी कठिनाई है मंच और मार्ग का अभाव। प्रकाशन अब एक व्यापारिक उपक्रम बन चुका है। जो बिकता है, वही छपता है — और जो सच लिखता है, वह प्रायः उपेक्षित रह जाता है।
प्रश्न: क्या व्यावसायिकता ने साहित्य की आत्मा को प्रभावित किया है?
उत्तर: हाँ, कुछ हद तक। पर सच्चा साहित्य हर दौर में बाजार से ऊपर रहा है। आत्मा को बेचा नहीं जा सकता — उसे बस लिखा जा सकता है।
प्रश्न: आप आज के समाज में साहित्य की उपयोगिता को कैसे परिभाषित करते हैं?
उत्तर: साहित्य वह मौन संवाद है जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है। जब समाज दिशाहीन होता है, तब साहित्य ही उसे दिशा दिखाता है। यह मनुष्य की आत्मा का दर्पण है।
प्रश्न: आपकी लेखन दिनचर्या कैसी है?
उत्तर: लेखन मेरे लिए दिनचर्या नहीं, साधना है। मैं लिखने के लिए समय नहीं निकालता — समय स्वयं मुझे लिखने को विवश करता है। विचार जब भीतर ठहरने लगता है, तभी वह शब्द बनता है।
प्रश्न: क्या आप किसी विशेष वातावरण या समय में लिखना पसंद करते हैं?
उत्तर: रात्रि की निस्तब्धता मुझे प्रिय है। जब सब सो जाता है, तब शब्द जागते हैं। उस मौन में ही सबसे अधिक संवाद होता है।
प्रश्न: लेखन में आने वाले अवरोधों (writer’s block) से आप कैसे निकलते हैं?
उत्तर: जब शब्द ठहर जाएँ, तो मैं प्रकृति की ओर लौट जाता हूँ। नदी, हवा, पेड़ — वही मुझे फिर से बोलना सिखाते हैं। मौन ही हर अवरोध का उत्तर है।
प्रश्न: क्या आप अपने लेखन में आत्मानुभव का प्रयोग करते हैं?
उत्तर: हाँ, मेरे हर शब्द में मेरा अंश होता है। अनुभव ही लेखन को प्रामाणिक बनाता है। मैं जो देखता हूँ, वही नहीं लिखता — जो महसूस करता हूँ, वही शब्दों में ढलता है।
प्रश्न: आने वाले समय में आपके कौन-कौन से साहित्यिक प्रोजेक्ट या पुस्तकें प्रस्तावित हैं?
उत्तर: कुछ कविताओं के संकलन, सामाजिक यथार्थ पर आधारित उपन्यास और नाट्य रचनाएँ निर्माणाधीन हैं। मैं चाहता हूँ कि अगला दशक मेरे लेखन का सामाजिक प्रतिबिंब बने।
प्रश्न: नई पीढ़ी के लेखकों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर: शब्दों के पीछे की आत्मा को पहचानो। साहित्य को साधना समझो, साधन नहीं। सच्चा लेखक वही है जो अपने समय की पीड़ा को महसूस करे और उसे ईमानदारी से व्यक्त करे।
प्रश्न: क्या साहित्य आज भी समाज में बदलाव लाने की ताकत रखता है?
उत्तर: हाँ, निश्चय ही। साहित्य वह बीज है जो समय की कठोर मिट्टी को चीरकर भी अंकुरित होता है। जब तक शब्द जीवित हैं, परिवर्तन की संभावना भी जीवित है।