कोशी-सिमांचल में ‘पटशन-पटुवा’ की खेती बनी संकट, मेहनत बेहिसाब, मुनाफा नाममात्र

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भीषण बारिश में महिलाएं-बेटियां दिनभर करती हैं मेहनत, फिर भी सरकार की नीतियों से किसान निराश

श्रवण आकाश, खगड़िया। कोशी-सिमांचल की धरती पर कभी ‘सोने के फाइबर’ यानी पटसन की खेती किसानों की शान हुआ करती थी। यही फसल गांवों की अर्थव्यवस्था का आधार थी और किसानों की मेहनत का प्रतीक भी। लेकिन वक्त के साथ यह खेती अब संकट में है। खगड़िया, सहरसा, सुपौल, पूर्णिया, अररिया, कटिहार, मधेपुरा, दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में आज भी हजारों किसान परिवार इस परंपरागत फसल को बचाए रखने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं। भीषण बारिश, दलदल और गंदे पानी के बीच महिलाएं, बेटियां और पुरुष किसान घुटनों तक कीचड़ में धंसे हुए दिनभर फसल निकालने में जुटे रहते हैं। पटसन की छीलाई और सुखाई के दौरान हाथों में छाले पड़ जाते हैं, मगर मेहनत की कीमत आज भी नाममात्र मिलती है। पुछताछ में धीरज कुमार, नेहा देवी, अखिलेश यादव, नीलू देवी, कविता देवी आदि किसान बताते हैं कि एक एकड़ खेत की लागत 15 से 20 हजार रुपये तक होती है, पर बिक्री के वक्त मुश्किल से इतना दाम मिलता है कि खर्च ही निकल पाए। ऊपर से बाजार में भाव तय करने की कोई पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। व्यापारी अपने हिसाब से दाम तय करते हैं और किसान मजबूरी में वही भाव स्वीकार करते हैं।

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महिला किसानों का दर्द और भी गहरा है। वे सुबह से शाम तक गंदे पानी में खड़ी होकर पौधों की कटाई और छीलाई करती हैं। कई बार उन्हें मजदूरी तक नहीं मिलती, क्योंकि पूरा परिवार मिलकर काम करता है और आमदनी इतनी नहीं कि घर चल सके। युवाओं में खेती के प्रति मोहभंग बढ़ रहा है, लेकिन इलाके में वैकल्पिक रोजगार का कोई ठोस साधन नहीं है। किसान नेताओं का कहना है कि सरकार ने पटसन उद्योग के पुनर्जीवन की दिशा में कभी गंभीर पहल नहीं की। जूट मिलें बंद हैं, कच्चे माल की मांग घट गई है और आधुनिक तकनीक किसानों तक नहीं पहुंच पाई है। ऐसे में यह परंपरागत खेती अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।

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पटसन किसान सरकार से मांग कर रहे हैं कि जूट उद्योग को पुनर्जीवित किया जाए, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) मिले और उनके लिए अलग विपणन मंडी स्थापित की जाए। साथ ही, महिलाओं के श्रम का उचित मूल्यांकन किया जाए। कोशी-सिमांचल के किसान आज भी उम्मीद की डोर थामे हुए हैं कि एक दिन यह पारंपरिक फसल फिर से उनकी खुशहाली का प्रतीक बनेगी। जिस “सोने के फाइबर” ने कभी गांवों में समृद्धि लाई थी, वह फिर चमके — यही अरमान अब भी हर किसान के दिल में जिंदा है।

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