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भला क्यों पूछते हो मुस्कुराकर दास्तां मेरी
मेरे चेहरे पे फूलों सा तब्बसुम क्या नहीं भाता
ये देखो शाम से चेहरे हैं डूबे सोच में सारे
हमें अपनों से नाता भी निभाना क्यों नहीं आता
ये वादा था बहारों से मैं आऊंगा यहाँ लेकिन
मैं आऊं तो सुहाना कोई मंज़र क्यों नहीं भाता
करा क्यों ज़िक्र तूने महफ़िलों में हर कहीं मेरा
तुम्हें छोटा सा अफ़साना भुलाना क्यों नहीं आता
थिरकती रात में हैं लड़खड़ाते मयकदे कितने
नशीली आँख वाला जाम मुझको क्यों नहीं भाता
रिपुदमन पचौरी