राष्ट्र धर्म!!

अजय कुमार झा

मत पूछो घोड़ों से कभी
उसके पैड़ों में ठुके नाल का दर्द
बेजुबां की कड़कती जुबां की है अनोखे अंदाज की आवाज.
सत्ता के गलियारे में
वोटों की बातें होती हैं
जो मेरे गांवों से गुजरती है
कुर्सीनशिनों हम ही तो हैं
जो कुर्सियां बनाते रहे हैं
अन्न जल सड़क के हर्फ़ों को
मांसपेशियों की मछलियों के
बहते खूं पसीने से तड़ रखते हैं.
कानूनों के किताबों में ढूढ़ों जरा
हमारे ही अक्स नजर आते हैं
हमारे आइने में तुम अपनी
वक्ती चेहरे तलाशते रहते हो
इतिहास में ढूंढ़ो मुझे
केवल जूते नहीं उठाये जाते
इस्तिफे भी लिए जाते हैं.
दंगें आपातकाल के जख्मों से
गर तख्तियां जलाते जलता हूँ
खाकर ठोकरें ठोकरें मारता हूँ
धर्म और जाति में बटे मजलूम
सन् सत्तावन- सैंतालिस रचकर

राष्ट्र धर्म की नजीरें पेश करते हैं

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मौलिक स्वरचित रचना.
@ अजय कुमार झा.
मुरादपुर, सहरसा, बिहार.

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