विधा:-लघुकथा
शीर्षक:- तिलचट्टा और चींटी
एक तिलचट्टा अपने परिवार के साथ भंडार घर के अंधेरे कोने में रहता था । बीच-बीच में खुली हवा में साँस लेने के लिए और कुछ भोजन का जुगाड़ करने के लिए बाहर निकल आया करता था । ऐसे ही एक दिन जब वह बाहर आया तो देखा कि चीटियों की दो कतारें उसका रास्ता रोके हुई हैं । एक कतार की सभी चीटियाँ भोजन लेकर अपने बिल की ओर जा रही थीं । दूसरी कतार की चीटियाँ भोजन लाने जा रही थीं । तिलचट्टा कुछ देर तो इंतजार करता रहा लेकिन जब उसने देखा कि चीटियों की कतारें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं तो उसे बहुत गुस्सा आया । उसने कड़कदार आवाज में चींटियों से कहा-
ऐ चीटियों ! दिखाई नहीं देता मैं कब से यहाँ खड़ा हूँ ? तुम लोगों की कतार खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही । चुपचाप से मेरा रास्ता छोड़ो वरना तुम सब को खा जाऊंगा ! ”
“ही ही ही ,” चींटियाँ तिलचट्टे पर हँसने लगीं ।
हँस क्यों रही हो तुम सब ? क्या तुम लोगों को मुझ से डर नहीं लगता ?” तिलचट्टा गुस्से से आग बबूला हो रहा था ।
“डर ?किस बात का डर? क्या तुम्हें अपने आकार का अहंकार है ? हम आकार में सबसे छोटी प्राणी जरूर हैं लेकिन हम तो हाथी पर भी भारी पड़ती हैं । इस बात का पता तो तुम्हें होगा ही ! फिर तुम्हारी क्या बिसात ? जरा अपनी नजर घुमा कर देखो ! कुछ ही दूर में एक मरी, अधखाई छिपकली नजर आएगी । उसको भी अपने ऊपर बड़ा घमंड था । हमने उसको घेर कर जिंदा मारा है़ । उसी का मांस हम लोग अपने घर ले जा रहे हैं । बरसात होने वाली है । इसलिए भोजन इकट्ठा करना जरूरी है । तुम दूसरा रास्ता ढूंढो , हमारा वक्त बर्बाद मत करो ! और हाँ , याद रखना शक्ति विशाल शरीर में नहीं बल्कि एकता में है । हमारी शक्ति हमारी बुद्धि और एकता में है़ । ” चीटियों के सरदार ने तिलचट्टे को समझाते हुए कहा ।
अब तक तिलचट्टे की अकड़ गायब हो चुकी थी । उसने मरी आधखाई हुई छिपकली को देख लिया था । वह समझ गया था अपना रास्ता नापने में ही भलाई है । इसलिए वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया ।
शिक्षा:-
१.संगठन में ही शक्ति है
२. शारीरिक संरचना के आधार पर किसी का मूल्यांकन करना मूर्खता है ।
मौलिक एवं स्वलिखित
सरस्वती मल्लिक
मधुबनी , बिहार