परबत्ता का रण: राजनीति के दो धुरंधरों में आर-पार की जंग, प्रतिष्ठा और अस्तित्व दांव पर

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श्रवण आकाश, खगड़िया. “आ देखें ज़रा, किसमें कितना है दम…” — यह गीत इन दिनों परबत्ता विधानसभा क्षेत्र के चुनावी माहौल में सटीक बैठता है। हर गली, हर चौक और हर नुक्कड़ चुनावी रंग में रंगा है। माइक की गूंज, बैनरों की चमक और समर्थकों के नारों के बीच अब परबत्ता का रण ‘वीरों’ की असली परीक्षा बन चुका है। यहां अब मुकाबला है दो पुराने धुरंधरों के बीच — महागठबंधन समर्थित राजद प्रत्याशी डॉ. संजीव कुमार बनाम एनडीए समर्थित लोजपा (रा) उम्मीदवार बाबूलाल शौर्य। दोनों की साख, प्रतिष्ठा और राजनीतिक अस्तित्व दांव पर है — यानी “यह जंग जीत की नहीं, वजूद की है।”

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परबत्ता विधानसभा सीट लंबे समय से जदयू का गढ़ रही है। दिवंगत मंत्री रामानंद प्रसाद सिंह और बाद में उनके पुत्र डॉ. संजीव कुमार ने जदयू के टिकट पर लगातार जीत दर्ज की। लेकिन इस बार राजनीतिक पटकथा में बड़ा ट्विस्ट आया — डॉ. संजीव कुमार ने जदयू छोड़कर राजद का दामन थाम लिया।‌ एनडीए ने यह सीट लोजपा (रा) को दी और बाबूलाल शौर्य को उम्मीदवार बना दिया। इस तरह पुराने साथी अब आमने-सामने हैं। बीते वर्ष 2020 में भी दोनों के बीच भिड़ंत हुई थी — तब संजीव जदयू में थे, बाबूलाल लोजपा (रा) में। उस समय संजीव ने बाजी मारी थी, लेकिन अब हालात पलटे हुए हैं। इस बार समीकरण उलटे हैं, तो मुकाबला और भी पेचीदा।

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परबत्ता विधानसभा भूमिहार बहुल्य इलाका है — और दिलचस्प बात यह कि दोनों प्रत्याशी इसी समाज से आते हैं। राजद और लोजपा (रा) दोनों ने एक ही जातीय पृष्ठभूमि के उम्मीदवार देकर इस चुनाव को और दिलचस्प बना दिया है। वही राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है — “परंपरागत रूप से सवर्ण मत एनडीए के पक्ष में रहा है, लेकिन यदि डॉ. संजीव स्वजातीय मतों में सेंध लगा ले गए, तो समीकरण उलट सकते हैं।” फिलहाल दोनों प्रत्याशी मैदान में पूरी ताकत से डटे हैं। जहां डॉ. संजीव कुमार अपने कार्यकाल के विकास कार्यों, सड़कों, शिक्षा और स्वास्थ्य योजनाओं को मुद्दा बना रहे हैं, वहीं बाबूलाल शौर्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, एनडीए सरकार की नीतियों और “विकास की निरंतरता” को केंद्र में रख रहे हैं।‌ सोशल मीडिया से लेकर गांव-गांव की चौपालों तक — हर जगह अब चर्चा सिर्फ एक ही है: “शौर्य भारी या संजीव भारी ?”



दल बदल और टिकट वितरण से नाराज़ स्थानीय नेताओं को मनाने में दोनों उम्मीदवारों ने पूरी ताकत झोंक दी है। रात-दिन बैठकों का दौर जारी है। एक ओर संजीव अपने पुराने कार्यकर्ताओं को ‘नई भूमिका’ में जोड़ने में जुटे हैं, तो दूसरी ओर बाबूलाल शौर्य पुराने एनडीए नेताओं की नाराज़गी दूर करने में। कई जगहों पर नाराज़ समर्थकों को मिठाई और फूल, माला देकर मनाया जा रहा है।
स्थानीय स्तर पर यह कवायद दिखा रही है कि दोनों ही ओर जीत के लिए “कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही।” परबत्ता की गलियों में अब एक ही चर्चा है —‌‌ “इस बार ऊंट किस करवट बैठेगा?” कोई कहता, “संजीव के पास अनुभव है,” तो कोई कहता, “बाबूलाल का नेटवर्क गहराई तक है।” हर नुक्कड़ की चाय पर यही बहस — “विकास या वफादारी, कौन जीतेगा मैदान?”

बिहार का सेंटर ऑफ अट्रैक्शन बना परबत्ता विधानसभा, बदलते राजनीतिक समीकरणों और दो पुराने प्रतिद्वंद्वियों के आमने-सामने आने से परबत्ता सीट पूरे बिहार के राजनीतिक फोकस में है। यह मुकाबला अब केवल वोटों का नहीं, प्रतिष्ठा और अस्तित्व का प्रतीक बन गया है। अब देखना है कि जनता किसे परबत्ता का असली “वीर” मानती है —‌ डॉ. संजीव, जो पार्टी बदलकर ‘जनता के दरबार’ में लौटे हैं, या बाबूलाल शौर्य, जो एनडीए के झंडे तले ‘विकास की निरंतरता’ का दावा कर रहे हैं। “आ देखें ज़रा, किसमें कितना है दम…”
अब बस मतगणना तिथि की शाम तय करेगी —
कौन रखता है परबत्ता की मिट्टी का मान,
कौन बनेगा यहां का असली सुल्तान।

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