जयंती के दिन भी भारतीय पुनर्जागरण के प्रणेता राजाराम मोहन राय की प्रतिमा धूल फांक रहा है, प्रतिमा को साफ करने की किसी ने जहमत तक नहीं उठाई
भागलपुर समाहरणालय के पूर्व दीवानी सिरिस्तेदार यानी कि कार्यालय अधीक्षक रहे भारतीय पुनर्जागरण के प्रणेता, महान समाज सुधारक, सती प्रथा के खिलाफ विरोध का बिगुल फूंकने वाले और आधुनिक भारत के पथ प्रदर्शक राजा राम मोहन राय को कोरोना काल में जयंती के दिन भी जिला प्रशासन भूल गए| यहां तक कि समाहरणालय परिसर में मुख्य द्वार के समीप लगी उनकी मूर्ति 249 वीं जयंती के मौके पर भी धूल फांकता रह गया| लेकिन कोविड – 19 के मद्देनजर जारी गाइडलाइंस का पालन करते हुए उनकी प्रतिमा पर सम्मान पूर्वक माल्यार्पण करना तो दूर जिला प्रशासन ने उनकी प्रतिमा पर जमे धूल को भी साफ करवाने की जहमत नहीं उठाई| राजा राम मोहन राय ने तकरीबन 36 साल की उम्र में भागलपुर समाहरणालय में वर्ष 1808 – 1809 तक दीवानी सिरिस्तेदार (कार्यालय अधीक्षक) कि जिम्मेवारी संभाली थी| वहीं उनके सम्मान में भागलपुर समाहरणालय परिसर में उनकी प्रतिमा जरूर लगा दी गई है लेकिन आज वही प्रतिमा जयंती के दिन भी सम्मान के लिए शायद तरस रहे हैं|
राजा राममोहन राय ने मूर्ति पूजा का जमकर किया था विरोध
भारतीय पुनर्जागरण के जनक राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को पश्चिम बंगाल में हुगली जिले के राधानगर गांव में हुआ था। वहीं उस समय यह बंगाल प्रेजीडेंसी का हिस्सा हुआ करता था। पिता रमाकांत राय हिन्दू ब्राह्मण थे, लेकिन बचपन से ही राजा राममोहन राय कई हिन्दू रूढ़ियों से दूर रहे। यही नहीं उन्होंने महज 15 साल की अल्पआयु में ही बंगाली, संस्कृत, अरबी और फारसी भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लिया था । छोटी से उम्र में ही राजा राममोहन राय ने देश भर में काफी ज्यादा भम्रण भी कर लिया था । इसी कड़ी में केवल 17 साल की उम्र में उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध करना शुरू कर दिया था। मूर्तिपूजा के विरोधी रहे राजा राम मोहन राय की आस्था एकेश्वरवाद में थी। उनका साफ मानना था कि ईश्वर की उपासना के लिए कोई खास पद्धति या नियत समय नहीं हो सकता। पिता से धर्म और आस्था को लेकर कई मुद्दों पर राजा राममोहन राय का मतभेद भी होता था| जिसके कारण उन्होंने बहुत कम उम्र में ही घर छोड़ दिया था। बताया जाता है कि इस दरमियान उन्होंने हिमालय और तिब्बत के क्षेत्रों का खूब दौरा किया और चीजों को तर्क के आधार पर समझने की कोशिश की। इसके साथ ही राजा राममोहन राय ने मूर्ति पूजा और समाज में फैली बुरी कुरुतियों का काफी विरोध किया था| भारतीय पुनर्जागरण के जनक’ और ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ राजा राम मोहन राय ने 19वीं सदी में समाज सुधार के लिए अनेकों आंदोलन चलाए थे| जिनमें सबसे मुख्य सती प्रथा को खत्म करने के लिए उन्होंने बिगुल फूंका था| वहीं राजा राम मोहन राय ने 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की थी, जो पहला भारतीय सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन माना जाता था। यह वह दौर था, जब भारतीय समाज में ‘सती प्रथा’ जोरों पर थी। 1829 में इसके उन्मूलन का श्रेय राजा राममोहन राय को ही जाता है। इसके अलावा उन्होंने उस दौर की बहुत सारी सामाजिक बुराइयों- जैसे की बहुविवाह, बाल विवाह, जाति-व्यवस्था, शिशु हत्या और अशिक्षा को भी समाप्त करने के लिए मुहिम चलाई और जो काफी हद तक कारगर रहा।
राजा राममोहन राय ने धर्म में भी तार्किकता पर दिया था जोर, ‘तुहफत अल-मुवाहिदीन’ उनकी पहली पुस्तक
राजा राममोहन राय जब काफी समय बाद लौटे तो उनके माता-पिता ने उनके अंदर कथित सुधार की उम्मीद को लेकर उनकी शादी करवा दी थी| लेकिन राजा राममोहन राय हिन्दुत्व की गहराइयों को समझने में लगे रहे, जिससे कि इसकी बुराइयों को समाज के सामने लाया जा सके और लोगों को इस बारे में बताया जा सके। उन्होंने उपनिषद और वेदों को पढ़ा और ‘तुहफत अल-मुवाहिदीन’ लिखा। यह उनकी पहली पुस्तक थी और इसमें उन्होंने धर्म में भी तार्किकता पर जोर दिया था और रूढ़ियों का विरोध किया। राजा राममोहन राय का करीब 61 साल की उम्र में 27 सितंबर 1833 में निधन हो गया|