दिसम्बर जा रहा है
जैसे फूलों से खुशबू जा रही है।
ठीक वैसे ही दिसम्बर जा रहा है।
कोई हमें पाग़ल तो कोई नादाँन समझ
कर चेहरें के सामने बस हँसे जा रहा है।
पता नहीं हमें ये मेरी किस्मत है या
पछले जनम का बाकी भुगतान है।
हर कोई जोगी समझकर थैले में
उदासियों कि भीख दिए जा रहा है।
इन हाथों कि लकीरें तो ठीक आज
ख़ुद इश्वर भी हमसे दुर जा रहा है।
साँसे रोकने कि कोशिशें तो बहोत
कि दिल हमें अमर बनाये जा रहा है।
बुद्धु समझ कर सब ठीक हो जाएगा
ऐसा भ्रम हमें समझाएं जा रहा है।
नीक राजपूत