आज तन से मन पृथक

प्रभात गौर

आज तन से मन पृथक,होकर विचरण कर रहा हैं।
अनगिनत चलचित्र देखकर,मन में संशय हो रहा हैं। इस जगत में ढूंढता मन जिसे,क्या वह मिल पायेगा।
पुष्प सब आकर्षित करते,मन बावरा मेरा हो रहा हैं।
आज तन से मन पृथक,होकर विचरण कर रहा हैं।

है अन्धेरी रात बहुत मगर,चाँद भी निकला हुआ हैं।
है ख्वाब जीवन का जो मेरे,पर सच दिखाई दे रहा हैं।
तीव्र गति से मन मेरा उसकी,तरफ नित बढ़ रहा हैं।
उद्यान के सारे पुष्प को मन,मेरा अपना समझ रहा हैं।
आज तन से मन पृथक ,होकर विचरण कर रहा हैं।
“प्रभात गौर”

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