तीन रंगों में लिपटा सम्मान
मिला मुझे शहादत पे
तिरंगे का सम्मान कफन
जो मिला देश की इबादत पे
जब सुना संदेश शहीदी
थम गया स्वर पिता का
थक कर स्वर विहिन कंठ था
आज जन्म देने वाली मेरी माता का
सूनी मांग लिए
रास्ता देख रही थी मेरी विधवा
व्याकुल निरीह भूख के बीच
बच्चों का स्वर भी मौन हुआ
बीच बीच में भुख से
स्वर रुदन के फूट पड़ते
जब पेट रूपी भट्टी में
अन्न रूपी कोयले नहीं पढ़ते
क्या यही अंत एक गैरतमंद
शहीद का है
या आरंभ किसी
नई सी कहानी का हुआ है
जो कभी देश की हर चुनौती पर
अपना फर्ज निभाते थे
बन चट्टान खड़े रहते
ना पैर कभी भी डगमगाते थे
तभी तो सवा सौ करोड़ भाई बहन मेरे
चैन की नींद सो पाते थे
आज थक कर सो रहा हूं मै
बरसों बाद चैन की नींद तिरंगे में
बरसों बाद चैन की नींद तिरंगे में।
शीतल शैलेन्द्र “देवयानी”
इन्दौर