। जीवन के पड़ाव ।
बूढा होने लगा हूँ अब तो ,
जीर्ण ,शीर्ण हो रहा शरीर ,
जो बलिष्ठ ,बलशाली बहुत था ,
कहां रहा अब वही शरीर ?
बहुत गुमान जिस तन पर था मुझे ,
उसे याद कर होती पीर।
सभी इंद्रियां शिथिल हुई हैं ,
आयु की घट रही लकीर।
आंखें भी लखती हैं अब कम ,
श्रवण में भी अब रहा न जोर ,
वे भी सुनने लगे अब कम हैं
आंखें भी अब हुईं कमजोर ।
दौड़ लिया करता था जितना ,
उतना दौड़ न पाता हूँ ।
खा लेता था जितना खाना ,
उतना पचा न पाता हूँ ।
बदल गईं हैं सारी चीजें ,
बदला बहुत जमाना है ।
पहले जैसा अब नहीं होता ,
अब कहाँ आना जाना है ?
अपने सब अब हुए पराये,
रिश्तेदार सब हो गए दूर,
दूरी बनाए रखने में अब ,
लगता सब अब हुए मजबूर ।
बहुत सहज यह बात समझना ,
अंग अपने ही नहीं सुनते ,
अपने ही अंग हुए हैं आश्रित ,
निज बल पर वे नहीं चलते ।
आंख पर चश्मा ,कान श्रवणयंत्र ,
के बिना वे अब नही चलते ।
छड़ी सहायक है चलने में ,
दवा भी कष्ट निवारण में ।
कहां रही सब बातें पुरानी ,
अंतर आगया आचरण में ।
सोच सोच कर थक जाता हूँ ,
सही सोच नहीं पाता हूँ ।
सत्य कहूँ तो मान लो भैया
बहुत व्यथित हो जाता हूँ ।
उम्र अरे जब ढल जाती है ,
क्या से क्या हो जाता है?
सुबह शाम में जितना अंतर ,
वही अंतर दिख जाता है।
इसीलिए अपने भी देखो ,
सच में पराये हो जाते ।
रिश्तेदार और सखा सभी भी ,
दूर सदा हो ही जाते ।
कोशिश कर लो लाख मगर ,
पर सुबह बीत ही जाएगी ,
दोपहरी का ताप प्रखर हो ,
संध्या, निशा तो आएगी ।
जीवन के भी डगर कई हैं ,
उसके भी हैं चार पड़ाव ,
हर पड़ाव की दूरी अधिक है ,
निश्चित है वहां होगा दुराव ।
सृष्टि के ही सृजन काल से ,
परिवर्तन का क्रम जारी है ।
नहीं हुआ है कभी भी व्यतिक्रम ,
और न मुझे हैरानी है ।
चाहे हो जाये जो कुछ भी ,
तुम्हे नहीं घबराना है ,
जबतक तन में सांसें तेरी ,
मन से मस्त रह जाना है ।
मन की मस्ती ही मस्ती है ,
तन तो दुर्बल होगा ही ,
जीवन के जितने पड़ाव हैं
उनमे अंतर होगा ही ।
प्रो उमेश नंदन सिन्हा, सर्वाधिकार सुरक्षित ।