राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर सच्ची पत्रकारिता की ऐसी लाइन जो आपको झकझोर देंगी

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सच्ची पत्रकारिता एक नशा होती है साहब, दुनिया में एक पत्रकार हीं हैं जिन्हें ना सैलरी और वर्तमान में ना हीं कुर्सी मिलती हैं साहब :- श्रवण आकाश, खगड़िया

दुनिया में बहुत सारे क्षेत्रों में मात्र एक पत्रकार हैं, जिन्हें ना ही कोई तनख्वाहें मिलती हैं और ना हीं सच्ची लेखनी लिखने वाले पत्रकार को किसी दफ्तर में कुर्सी। यहां तक कि हर एक अधिकारी पदाधिकारी और नेतागण नंबर ब्लॉक कर रखने और मामला दर्ज कराने से भी बाज नहीं आते हैं। खैर ये सब उनकी सोच और व्यवहारिकता का परिचय है। इतना हीं नहीं हर किसी लाइन में सुकुन की नींद और चैन का दो रोटियां तोड़ने की आजादी है लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में ठीक विपरीत। तो अर्थ युग में लोग आश्चर्य हों कहते हैं तो फिर ऐसे काम क्यों करते हो।जबाव सिर्फ एक सच्ची पत्रकारिता का नशा। पत्रकार की ताकत पर अकबर इलाहाबादी साहब के कलम से ‘खीचों न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’ परंतु यह तभी मुनासिब हैं, यदि पत्रकार अपनी नैतिक जिम्मेदारी का निर्वाह बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने कार्य का निर्वाह करे। अफवाह के पांव नहीं होते और खबर तथ्यों के पांव पर चलती है। बावजूद इसके अफवाह और खबर दोनों तेज़ी से फैलती हैं। इनमें थोड़ा ही अंतर होता है, परंतु यही थोड़ा सा अंतर बहुत बड़ा अंतर पैदा कर देता है। जब खबर लोगों तक पहुंचती हैं, तो लोगों को सूचना मिलती है, उनकी जानकारी में वृद्धि होती हैं और वे सचेत हो जाते हैं। परंतु जब अफवाह फैलती हैं, तो लोगों को गलत या अधूरी जानकारी मिलती हैं।

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जिससे असमंजस की स्थिति व गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं। जब अफवाह का बाज़ार गर्म होता हैं, तो लोग वो भी सुन लेते हैं, जो कहा ही नहीं गया या जो घटा ही नहीं। अत: अफवाह और खबर के अंतर को पहचानना बहुत ज़रूरी हो जाता है। सही क्या है, गलत क्या है, सच क्या है, झूठ क्या है, ये जानने के लिए लोग पत्रकार की ओर देखते हैं। इसलिए पत्रकार का विश्वसनीय होना परम आवश्यक हैं। किसी भी क्षेत्र के पत्रकार से यह आशा की जाती हैं, कि वह अफवाह और खबर के अंतर को पहचानते हुए व नैतिक सिद्धांतों का निर्वाह करते हुए घटनाओं की सही तस्वीर व जानकारी दर्शकों व पाठकों के समक्ष रखे। परंतु आजकल खास तौर से न्यूज़ चैनल जिस तरह से किसी मुद्दे को पेश करते हैं या घटनाओं को प्रसारित करते हैं, उससे दर्शकों के लिए सच और झूठ, खबर और अफवाह में अंतर करना मुश्किल हो जाता है।

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किसी अमुक घटना को एक चैनल ऐसे दिखाता हैं, जैसे सच यही है और उसी घटना को दूसरा चैनल इस तरह पेश करता है जैसे वही सच हैं। ये देख कर दर्शक दुविधा में पड़ जाते हैं। जो दर्शक केवल एक ही चैनल देखता है, उसके लिए वही सच हो जाता है, जो वह उस चैनल पर देखता है। हिन्दुस्तान के बशीर महताब का ये शेर इस बात को बखूबी बयां करता है, ‘मुझ को अख़बार सी लगती हैं तुम्हारी बातें, हर नए रोज़ नया फित्ना बयां करती हैं।’ इस मामले में इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया से बहुत आगे है। विरोधाभास से भरी खबरों को देख व सुन कर दर्शकों के सिर चकराते रहते हैं कि आखिर किस चैनल पर सच है।

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उदाहरण के तौर पर किसी चैनल ने सुशांत सिंह की मौत को हत्या करार दिया, किसी दूसरे चैनल के लिए वो आत्महत्या मात्र थी। अर्थात खबरी चैनल अपने-अपने सच तय कर लेते हैं। फिर वे अपने-अपने सच के तय किए गए बिंदुओं के चारों ओर खबरों को घुमाते रहे। न्यूज़ देखने वाले ये जानने के लिए हाथ-पांव मारते रहें कि अखिर सच क्या है और कितना सच हैं। वे खबरों के तराजू में कभी इस चैनल के पलड़े में, तो कभी उस चैनल के पलड़े में झूलते रहते हैं। हास्यास्पद बात यह है कि इस बीच न्यूज चैनल एक-दूसरे को झूठा साबित करने पर अड़े रहते हैं, डटे रहते हैं। आप को याद होगा एक समय जब टीआरपी घोटाला थैले से बाहर आया था, तो न्यूज़ चैनलों ने एक-दूसरे के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया था। एक-दूसरे का खूब जऩाज़ा निकाला गया। वे ये साबित करने पर तुले रहे कि तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद हैं। सब अपने सच को सच कह रहे थे और देखने वालों को असली सच का पता नहीं मिल रहा था। इस शोरोगुल में यूं लगा कि हमारा पत्रकार भी सियासी हो चला है। सियासी पार्टियों की तरह वे भी लैफ्ट-राइट करते रहे। न्यूज चैनलों पर जो डिबेट्स होते हैं, उनमें तो प्रतिभागी ऐसे चिल्ला रहे होते हैं कि यही जानना मुश्किल हो जाता हैं कि कौन किसे क्या कह रहा है और कौन सुन रहा है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ से अपेक्षा की जाती है कि यह एक सजग प्रहरी की तरह देश-प्रदेश की सरकारों, शासकों, प्रशासकों के कार्य पर कड़ी नजऱ रखे। मीडिया किसी अमुक विषय, घटना व परिस्थितियों को केवल उजागर और प्रतिपादित ही नहीं करता, बल्कि उनके प्रति आम लोगों की सोच को प्रभावित करता है। इस तरह यह आम राय तैयार करने में अहम भूमिका निभाता है। सजग और जिम्मेदार पत्रकार न सरकार की चाटुकारिता करता है और न ही अनावश्यक विरोध में खड़ा होता है। इसका कार्य तो देश और समाज की वास्तविक तस्वीर को लोगों के सामने रखना है। आलोचना व मूल्यांकन करना सजग मीडिया और पत्रकारिता का सिद्धांत है।

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लोकतंत्र में आवाम की सोच व राय का उतना ही महत्व हैं, जितना मतदान का। आवाम की सोच से राय बनती है और इसी राय के इज़हार से सरकार के फैसले बनते बिगड़ते हैं, सरकारें सत्तारूढ़ होती हैं और सत्ता से उतार भी दी जाती हैं। इस सब में नि:संदेह मीडिया की अहम भूमिका होती है। परंतु यक्ष प्रश्न यह है कि इस उद्देश्य की पूर्ति में मीडिया आज कहां खड़ा है। पत्रकार का क्षरण एक चिंताजनक बात है। एक ज़माना था जब पत्रकार में नैतिक सिद्धांतों व सामाजिक जिम्मेदारी को बहुत अहमियत दी जाती थी। एक बार किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने महान पत्रकार राम नाथ गोयनका से उनके एक पत्रकार की तारीफ करते हुए कहा कि वह पत्रकार बहुत अच्छी रिपोर्टिंग कर रहा है। गोयनका समझ गए और उन्होंने उस पत्रकार को बर्खास्त कर दिया था। यह स्वतंत्र, निष्पक्ष व साहसी पत्रकार के सिद्धांत और सोच को दर्शाता है। आज कोई चैनल सरकार की शान में राग दरबारी करता हुआ दिखता है, तो कोई सरकार के कामों को काला कर दिखाने में जुटा रहता है। मैं ये तो नहीं कहता कि पत्रकार पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाया जाए, क्योंकि अभिव्यक्ति की आज़ादी किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होती है। यदि पत्रकार सरकार की उचित आलोचना नहीं करेगा, तो ऐसी सरकार तो तानाशाह बन बैठेगी। परंतु बेवजह की आलोचना नकारात्मक पत्रकार की बानगी है। पत्रकार को स्वतंत्र तो होना ही चाहिए, परंतु उसे स्वयं समझना है कि आज़ादी के साथ उसके देश व समाज के प्रति कत्र्तव्य भी हैं। चौथे स्तंभ पत्रकार को स्वत: ही अपनी सीमाओं और जिम्मेदारियों का बोध होना चाहिए। अन्यथा यह स्तंभ कमज़ोर हो जाएगा और कमज़ोर स्तंभ मज़बूत समाज और राष्ट्र को तामीर नहीं कर सकते। खबरों की प्रस्तुति ऐसी हो कि खबर वाला न लेफ्ट का लगे न राइट का लगे, बस वह ख़बर का लगे। यदि पत्रकार का रवैया पूर्वाग्रहों से ग्रस्त व गैर जि़म्मेदाराना रहेगा, तो देश सच का पता पूछता रहेगा और सच लापता रहेगा।

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अंततः राष्ट्रीय प्रेस दिवस समस्त पत्रकार साथियों से आखिरी ख्वाहिश सच कहो, चाहे तख्त पलट दो,चाहे ताज बदल दो। भले “साहब” गुस्सा हो,चाहे दुनिया इधर से उधर हो, तुम रहो या ना रहो पर, जब कुछ कहो तो,सच कहो। सच पर ही तो,न्याय टिका हैं, शासन खड़ा है,धर्म बना हैं, हे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ! सच से ही तुम हो
तो, अगर कुछ कहो तो, सच कहो। तुम अपनी राय मत दो, तुम किसी के गुलाम नहीं हो, सिर्फ,सच दिखाओ आवाम को, मरो-कटो-खपो,लड़ो-भिड़ो-गिरो पर,अगर कुछ कहो तो,सच कहो। ध्यान रखो,तुम न “साहब” के हो, ना ही तुम “शहजादे” से हो, तुम सिर्फ देश के जवाबदेह हो, सच बोलने से जो दर्द हो,तो चीख लो पर,तंत्र को जिंदा रखो, लोकतंत्र को जिंदा रखो सच झूठ के इस युद्ध को,रोक दो, हे लोकतंत्र-स्तंभ! बस,सच बोल दो और सच हीं बोलते रहो. .!! जय हिन्द, जय भारत। वंदेमातरम्

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