ढाइनु आखर प्रेम मा होत औ ढाइनु ही प्रभु सृष्टि बनाई।। ईश्वर की ही जौ सृष्टि सबै तौ भेद अकारथ ही उपजाई।। होत रही भ्रूण हत्या जबै यहु केतिक बात रही दुःखदाई।। बलवान रहे धनवान रहे तबै यहू चंचल रीति चलाई।।1।। भेद नहीं करतार कियौ जब मानव ही यहु क्यों अपुनाई।।। रोटी बसन औ मकान चही सरकार भलो यहु कीनु उपाई।। सभ्य समाज कहावै खातिनु शिक्षा जुरूरी दयौ बतियाई।। काल हौं आदि कै बात न चंचल मध्य ही काल भवा दुःखदाई।।2।। शासक आये विदेशी धरा उत्पात महा अवनी उपजाई।। लूट खसोट रहे वे लुटेरे दुराचारू कै बात न जात गनाई।। अधरमिनु केरि बयारि बही निज देश विदेशिनु की गति जाई।। देश विभाजन बात बनी तबहूँ यै विधरमी न चंचल जाई।।3।। पुरूष प्रधान इ देश हमार महिलाननु हालि न जात बताई।। दबी कुचली कर रीति रही अत्याचार कै हालि कही नहि जाई।। सुधरी कछु हालि अबै यनकी फिरहू नहि नीकि कही समझाई।। बाला दिवस अरू शिक्षा दिवस तबै यहू चंचल जात मनाई।।4।।
आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर, सुलतानपुर, उ.प्र.।।